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महिला सशक्तिकरण की दिशा में एक प्रयास

सपनों को चली छूने
सपनों को चली छूने
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वर्ष 2007 की बात है, संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष के साथ हम महिलाओं से संबंधित मुद्दों को अखबार में वैवाहिक विज्ञापन वाले पेज पर निकाल रहे थे. इसे पढकर कई लोगों की प्रतिक्रिया- पत्र, इमेल आदि के माध्यम से आए l इनमें से ही एक पत्र जो बिहार के दूरस्थ जिले से आया था, ने हमें सोचने को मजबूर कर दिया और जन्म हुआ इस “ सपनों को चली छूने ” अभियान का.

यू.एन.एफ.पी.ए की सुश्री धनश्री ब्रहमें ने यह पत्र हमें देते हुए कहा कि क्या आप अपने संवाददाता से इसकी बात करवा कर इसके स्टोरी प्रकाशित कर सकते हैं.  लड़की  ने पत्र में बयां किया था- समाज में महिलायों के समक्ष असमान अवसर का पढ़- लिख कर भी वह लड़की अपने भाइयों को मिल रही सुविधायों का उपयोग नही कर सकती थी. लड़की होने का अभिशाप, परिवार से शुरु होकर मुहल्ले और शहर तक झेलना पड़ता था l वह आवाज उठाना चाहती थी, लेकिन कोई मंच नही दिख रहा था. कोई ऐसा हाथ नही दिख रहा था जो उसे राह दिखाए और वह अपनी इच्छाओं को पूरा कर सकें. उसके मन में रोष था, अपने परिवार के प्रति, समाज के प्रति. हम पत्र को लेकर कई दौर बैठे यू.एन.एफ.पी.ए के इना सिंह, धन श्री और फिर शामिल हुए रजत रे.  मैं और पूजा शुरुआत में पहल की ओर से, बाद में विश्व मोहन ने भी बहस ज्वाइन कर लिया l  कगभग साल भर लगा हमें यह तय करने में की आखिर क्या किया जाय जिससे की इन लड़्कियों का आत्मविश्वास बढ़े और अन्य समाजकर्मी सरकारी संस्थान आगे आकर इनका हाथ थामें. तब हुई शुरुआत “ सपनों को चली छूने ”  इस पायलट प्रोजेक्ट की शुरुआत में यह मूल रुप से इवेंट बेस्ड प्रोजेक्ट था लेकिन धीरे-धीरे लडकियोंके उत्साह ने इसे आंदोलन का रुप दे दिया l इसमें हमलोगों ने बिहार के छ: जिलों में (आरा, जहानाबाद, भागलपुर, मुजफ्फरपुर, गया और पटना) के 20 कॉलेजों का चयन किया गया जिसमें  से चार सह-शिक्षा (Co-ed) कॉलेज को शामिल किया गया l

अपने अखबार से जुड़े स्थानीय संपादकों के साथ नामित जिलों के संपादकीय प्रभारी भी इस अभियान में साथी बने.

इस परियोजना का मूल उद्देश्य था :

v  कॉलेजों में संरचनात्मक एवं रोचक कार्यक्रम के माध्यम से महिला सशक्तिकरण से जुडे बिंदुओं पर छात्राओं को अधिक से अधिक जानकारी देना और जागरुकता फैलाना.

v  छात्राओं को महिला सशक्तिकरण से जुडे मुद्दों की पहचान कराना तथा उसके विकास के लिए निरंतर प्रयासरत रहने को जागरुक करना.

v  समाज के प्रबुध्द वर्ग, शिक्षक, समाजसेवा एवं जुझारु प्रवक्ताओं और पत्रकारों के माध्यम से उन छात्राओं की पहचान करना जो भविष्य में परिवर्तनकारी नेतृत्व की क्षमता रखती हो.

परियोजना की मूल प्रकिया कई चरणों में विभाजित थी

  • सर्वप्रथम परियोजना से जुड़े क्रियान्वयन टीम को एक वर्कशॉप के माध्यम से प्रशिक्षित किया जाय.
  • दो दिन की एक अन्य कार्यशाला में सभी महाविद्यालयों के दो शिक्षकों, स्थानीय समाजसेवी संस्थाओं, पत्रकारों तथा सरकारी विभागों के साथ मिल कर परियोजना के कार्य योजना को मूर्त रुप दिया गया.
  • इस परियोजना के प्रचार प्रसार की भी एक रुपरेखा तैयार की गई जिसमें अखबार के विज्ञापन, कवरेज, होर्डिंग से लेकर छात्राओं के बीच वितरित किये जाने वाली सामग्री भी शामिल थीं.
  • चुनें गए कॉलेजों में एक दिन जेंडर फेयर लगाया गया. जिसमें छात्राओं को कई इंट्रेक्टिव कार्यक्रमों में लेने का मौका मिला. स्वयंसेवी संस्थानों द्वारा लगाये गये स्टालों पर छात्राओं को बहुत सारी जानकारी मिली.
  • यू.एन.एफ.पी.ए द्वारा तैयार किये गए एक ए.भी. (AV) जेंडर-वेंडर को छात्राओं मे दिखाने के बाद छात्राओं के साथ विशेषज्ञों के माध्यम से संवाद स्थापित किया गया.
  • दूसरे दिन छात्राओं के बीच पोस्टर एवं लेखन प्रतियोगता का आयोजन किया गया. जिसका विषय था “ मैं लड़की हूं, मेरा अनुभव
  • इस पूरे कार्यक्रम के माध्यम से शामिल महाविद्यालयों से 50 छात्राओं का चयन ‘ परिवर्त्तन दूत ’ के रुप में हुआ जिन्हें 18 दिसम्बर 2009 को बिहार के मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार ने पुरस्कृत किया.
  • इस परियोजना के अंतर्गत चुनी गई 50 छात्राओं के साथ दो दिन की कार्यशाला आयोजित की गई जिसमें छात्राओं को नामी हस्तियों के साथ बात करने एवं रुबरु होने का मौका मिला, जिनमें प्रमुख थे माननीय मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार, महेश भट्ट, नफीस अली, नसीम टुमकाया , भी.के.वर्मा.

यह परियोजना की समाप्ति नहीं शुरुआत है. अब इस 50 परिवर्त्तन दूतों को राष्ट्रीय एवं अंतराष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न मंच प्रदान करने का प्रयास किया जा रहा है.  परियोजना की सफलता का अदांजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि यू.एन.एफ.पी.ए के वर्ष 2010 का कैलेंडर एवं वॉल प्लानर का थीम भी सपनों को चली छूनें है.

इस परियोजना के अनुदान सहयोगी संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष एवं महिला विकास निगम , बिहार थे. प्रतियोगता में सभी छात्राओं को अपना सर्वोतम देने का प्रयास किया. ज्यादातर छात्राओं के लिये शायद यह पहला अवसर था, जब वह मन की बात को शब्दों या पोस्तरों पर उकेर रही थीं. ऐसी कई बातें सामने आई जिसे पढ़कर आपके रोंगटे खडे हो जायेंगे. उन छात्राओं की कलम से कुछ पंक्तियां :-

  • मैं पांच वर्ष की थी, मेरा बिस्तर भैया से अलग कर दिया गया क्योंकि मैं लड़की  थी. मुझे खड़े-खड़े पेशाब करने पर मार पडी लेकिन भैया को नहीं क्योंकि वह लड़का है.
  • मैं नही जानती इस कार्यक्रम से समाज कितना बदलेगा लेकिन ‘ मेरे पापा बदल गये’.
  • मै जब पांच वर्ष की रही होगी, मेरे सगे चाचा ने मेरे साथ यौन दुराचार किया. भगवान न करे, ऐसा किसी लड़की के साथ हो. आदि आदि………..
  • Ø

हम इन छात्राओं के मर्मस्पर्शी भावनाओं को एक-एक कर प्रकाशित करेंगे. हर छात्रा की कहानी एक संघर्ष बयां करती है, और समाज को आइना दिखाती है.

यों तो लिंग-भेद एक विश्वव्यापी  समस्या है, लेकिन इस विषमता की चुभती जडें भारत में और भी गहरी हैं क्योंकि  यहां बहुत कुछ संस्कृति और परंपरा के नाम पर थोपा जाता है.

आइये, हम इस विषमता को जड़ समेत नष्ट करने का संकल्प लें.

आंनद माधव

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