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मुझे अपने लड़की होने पर गर्व है। सौभाग्यवश, मैं ऐसे परिवार की हूं, जहां मुझे लड़की होने की वजह से न कभी सजा मिली, न कोई भेदभाव किया गया। मुझे वे सब सुविधाएं मिलीं, जो एक लड़के को मिलती हैं। माता-पिता ने लड़के-लड़कियों में फर्क नहीं समझा। मेरा भी मानना कि हम लड़कियां वह सारे काम कर सकती हैं, जो एक लड़का कर सकता है। रही बात शारीरिक फर्क की, तो यह तो भगवान या प्रकृति का विधान है। अलग-अलग देह प्रकृति की जरूरत भी है, इसकी खूबसूरती भी। गड़बड़ी तो आदमी के बनाये नियम और सोच से पैदा होती है। आज भी हमारे समाज में ऐसे परिवार हैं, जिनका मानना है कि लड़कियां वह नहीं कर सकतीं, जो लड़के कर सकते हैं। अरे, लोग यह क्यों नहीं मानते कि समाज बेटियों पर न विश्वास करता है, न उन्हें समान मौका देता है। आप खुद उसे हिम्मत दें कि हां तुम वह सब कुछ कर सकती हो, तो लड़कियां और बेहतर करती दिखेंगी।
अक्सर परिवार वाले कहते हैं कि बेटी है, बाहर नौकरी करने जाएगी तो लोग क्या कहेंगे? लेकिन वे ये क्यों नहीं जानते कि ये समाज उन्हीं लोगों से है। अगर वे ये मान जाएं कि बेटा और बेटी में कोई फर्क नहीं है, तो समाज भी धीरे-धीरे मान जाएगा। ये समाज हमें किस बात की सजा देता है? सब कहते हैं लड़की नौकरी नहीं कर सकती। अपने मन से कुछ नहीं कर सकती। अपने से नीचे या अपने से उच्च जाति के लड़के से शादी नहीं कर सकती। इसमें कुछ पूर्वाग्रह है, कुछ बंदिशें। मैं कहती हूं कि जब ये अधिकार हमें खुद सरकार देने को तैयार है और दे रही है, तो समाज कौन होता है उसे रोकने वाला? हम लड़कियों पर हमेशा दबाव क्यों दिया जाता है कि तुम लड़की हो, लड़की जैसी रहो? क्या लड़की को खुल कर जीने का कोई हक नहीं है? श्रीमती प्रतिभा पाटिल (राष्ट्रपति) औरत होकर जब पूरे देश को चला रही हैं और वे सारे काम कर रही हैं, जो एक पुरुष भी न कर सके, तो स्त्री कमजोर कैसे है? कल्पना चावला, इंदिरा गांधी, सोनिया गांधी ..ये सब महिला ही तो हैं। जब औरत सारे काम कर सकती है, तो फिर लड़कों को ऊंचा दर्जा और लड़कियों को नीचा दर्जा क्यों दिया जा रहा है?
दुख की बात है कि इस पुरुष प्रधान देश में आज भी लड़कियों को वह सम्मान नहीं मिल रहा है, जो उसे मिलना चाहिए और जो उसका अधिकार भी है। आज भी लड़कियों को जन्म लेने से पहले ही मारा जा रहा है। दहेज के लिए जलाया जा रहा है। आखिर ये सारे जुल्म हम लड़कियों पर ही क्यों? लड़कों को जन्म से पहले नहीं मारा जाता, क्योंकि वह बड़ा होकर वंश को आगे बढ़ाएगा, मां-बाप की सेवा करेगा, उनका नाम रोशन करेगा और सहारा बनेगा। तो क्या लड़की अपने मां-बाप की सेवा नहीं करती, वह अपने मां-बाप का नाम रोशन नहीं करती? कल्पना चावला के मरने के बाद भी लोग उसे याद करते हैं। बाहर कहीं अगर उसका परिवार निकलता होगा तो कहते होंगे, ये देखो, कल्पना चावल का परिवार है। वह भी तो एक लड़की थी। रही बात वंश बढ़ाने की, तो जब हम लड़कियां ही नहीं होंगी, तो वंश कहां से आएगा? फिर लड़कियों के परिवार को हमेशा लड़कों के परिवार के आगे झुकना क्यों पड़ता है? ये प्रथा पलटी क्यों नहीं जाती? क्यों न लड़के वाले ही दहेज दें? हम बस इतना जानते हैं कि लड़कों से कम नहीं हैं लड़कियां। आज नहीं तो कल, समाज को बदलना ही पड़ेगा।
ज्योति कुमारी
टी.एस. इंदु महिला कालेज, आरा
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