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लड़का मुझसे कम पढ़ा हो तो भी वह मेरा देवता, मैं उसकी दासी

सपनों को चली छूने
सपनों को चली छूने
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प्रकृति हम सभी जीव-प्राणियों की जन्मदात्री है। प्राणियों में सबसे समझदार होने की वजह से मनुष्य ने एक तरफ अपनी विकास यात्रा के क्रम में प्रकृति को साधने की कोशिश की, तो दूसरी तरफ समाज निर्माण के नियम-कायदे भी बनाये। हमारा समाज प्रकृति प्रदत्त कम, मानव अनुशासित अधिक है। अन्य प्राणियों में नर-मादा के व्यवहार प्रकृति तय करती है, लेकिन सभ्य समाज में स्त्री-पुरुष के व्यवहार नियमों में बंधे होते हैं। दोनों के बीच यौन संबंध तो प्राकृतिक हैं, लेकिन दोनों की स्थिति समाज तय करता है। समाज उन्हें किस नजर से देखता है, क्या अधिकार प्रदान किए गए हैं, कैसे संसाधन प्रदान करता हैं, उनके कार्य-विभाजन क्या हैं, इन सारी बातों पर स्त्री-पुरुष की स्थिति भिन्न हो जाती है। हमारा समाज चूंकि पितृसत्ता से ग्रसित है इसलिए नियम-कानून, परम्पराएं, रीति-रिवाज पुरुषों के द्वारा, उनकी सुविधानुसार ही बनाए गए हैं। हालत यह है कि स्त्री को केवल इस्तेमाल करने की चीज या सजावट का समान समझकर मर्द उस पर आधिपत्य जमाता आया है। महाभारत का द्रौपदी-चीरहरण इसी मानसिकता का ज्वलंत उदाहरण है।
मेरा मानना है कि पुरुष आम तौर पर महिलाओं को किसी चीज में आगे बढ़ने देना नहीं चाहते। विवाहिता के लिए घूंघट करना इसलिए जरूरी बनाया गया कि वह किसी अन्य पुरुष को न देख सके और न कोई दूसरा उसकी ओर आकर्षित हो सके। पाव में घुंघरू और पायल इसलिए होते थे कि जैसे ही वह इधर-उधर जाए, उस पर नजर रखी जाए। खैर, ये महिलाओं को नियंत्रित रखने की योजना (साजिश) थी, जिसे बाद में महिलाओं ने अज्ञानतावश खुद ही अपने साज-श्रृंगार के रूप में अपना लिया। दासता के उपकरण फैशन बन चुके हैं। मैं एक लड़की हूं, शिक्षित हूं, अपने अधिकारों के प्रति सजग हूं। लेकिन इस पितृसत्तात्मक समाज में स्त्रियोचित गुणों की परिभाषा कुछ और है। लड़की होने के नाते मुझे शर्माना, खाना बनाना, सिलाई-कढ़ाई और अन्य घरेलू कार्यो में निपुण होना चाहिए। अधिक पढ़ाई अगर गलती से कर ली तो भी अपना ध्यान चौका-बर्तन में लगाना होगा। जब शादी की उम्र हो जाए और लड़का मुझसे कम पढ़ा-लिखा हुआ, तो भी वह मेरा देवता और मैं उसकी दासी हूं। अगर उसने मुझे बेवजह मारा-पीटा तो उसके कृत्य को कोसने की जगह इसे मेरे पूर्व जन्मों का पाप बताया जाएगा। वह जो कहे, परंपरा के नाम पर सहन करना पड़ेगा। जैसा कि महिलाओं के साथ होता है, उन्हें शिक्षा के अधिकार, संपत्ति रखने के अधिकार, सेक्स संबंध के अधिकार आदि से वंचित कर दिया जाता है।
शिक्षा वर्तमान युग में महिलाओं का सबसे बड़ा हथियार हैं। इसके बल पर वह अपने आप को सशक्त बना सकती है। महिला सशक्तिकरण के लिए सरकारी, गैर-सरकारी संगठन, महिला संगठन आदि बहुत से काम करते दिख रहे हैं। व्यवसायिक और शैक्षणिक आरक्षण देने की पहल भी हुई है, लेकिन रास्ता लंबा है। इससे महिलाओं को रोजगार मिलेगा। उनकी आर्थिक स्थिति मजबूत होगी, लेकिन समाज में उनकी स्थिति सुधारने के लिए इतना ही काफी नहीं है। महिलाओं का जीवन स्तर बेहतर हो, लेकिन केवल इससे समाज की व्यवस्था में कोई परिवर्तन नहीं आएगा। यह समाज अचानक मातृसत्तात्मक नहीं हो जाएगा। नारी अपनी शारीरिक-आर्थिक सुरक्षा के लिए
पुरुष पर आश्रित है। यौन-उत्पीड़न, बलात्कार जैसी घटनाओं से अपने आप को बचाने के लिए वो सहमी है। सुरक्षा करने वाला वह पुरुष ही तो दूसरी तरफ भक्षक हो जाता है। बड़ा सवाल यह है कि हम अपने को आर्थिक रूप से तो सशक्त कर सकते है लेकिन महिला और पुरुष के भेद को कैसे मिटाएंगे? मैंने भी एक सपना देखा है क्योंकि मैं भविष्य हूं और आजाद समाज में खुला रहना चाहती हूं। हर लड़की को हक है कि वो अपने सपनों को पूरा करे। हम क्या नहीं कर सकती हैं? समाज को हमें बोझ समझने वाली मानसिकता छोड़नी पड़ेगी। लड़की हमेशा सुख में दुख में साथ निभाने वाली है,वो दोस्त है, पत्नी और मां भी है, लेकिन समाज ने उसे हमेशा झुकाने का ही प्रयास किया है। मुझे गर्व है कि मैं एक लड़की हूं, जिससे यह सम्पूर्ण समाज अस्तित्व में हैं।

पल्लवी वर्मा
मगध महिला कालेज पटना

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