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एक दिन जब मैं अपनी सहेली के घर गई। वहां मैंने देखा कि उसके परिवार में लड़के और लड़कियों में भेदभाव किया जाता था। खाने में मेरी सहेली गीता को चावल, दाल, सब्जी, जबकि उसके भाई को रोटी, दाल, सब्जी और दूध भी। यह देखकर मैं हैरान रह गई। मुझे कुछ समझ में नहीं आया कि एक परिवार में रहने वालों के बीच इतना अंतर क्यों? यहां तक कि खाना भी वे एक समान नहीं खाते थे। उसकी मां ने भी वही भोजन किया, जो गीता ने किया था। जब मैंने अपनी दोस्त से इस बारे में पूछा तो वह कहने लगी कि ‘मैं एक लड़की हूं।’ मुझे उसका उत्तर कुछ समझ में नहीं आया। मैंने उससे पूछा कि इसका क्या तात्पर्य है? तुम लड़की हो तो मैं भी लड़की हूं, इसमें कोई नई बात नहीं है। मेरी दोस्त ने कहां कि चूंकि वह लड़की है उसे पौष्टिक भोजन खाने की कोई जरूरत नहीं, वह अगर रोटी, दूध नहीं भी खाएगी तो चलेगा, परंतु उसके भाई को पौष्टिक भोजन मिलना अनिवार्य है। वह घर का इकलौता लड़का है, वह भविष्य में मां-बाप का सहारा बनेगा और मुझे तो शादी कर परिवार छोड़ना पड़ेगा। यह सब रेख कर मैं आश्चर्य में पड़ गई। घर वापस आ गई।
घर आकर मैंने ये सारी बातें अपनी मां से कहीं। मैं यह देखकर हैरान थी कि इन बातों का मेरी मां पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उन्होंने मुझे बताया कि अभी भी लड़कों और लड़कियों में अंतर किया जाता है। उन्हें समाज में वह प्रतिष्ठा नहीं मिल रही है, जो पुरुषों को मिलती है। भले ही वो तुम्हारी सहेली गीता के खानपान , पहनावे, खेलने-कूदने एवं शिक्षा में दिखा हो। लड़कियों को हर कदम पर त्याग करना पड़ता है। लड़कियों को अपनी शिक्षा पूरी करने का हक नहीं है। कुछ तो अनपढ़ ही रह जाती हैं। ज्यादातर लड़कियों को मैट्रिक के आगे पढ़ने की अनुमति नहीं होती। उसके बाद शादी कर दी जाती है। शादी हुई कि उनके माता-पिता पर से बोझ उतर गया। उन्हें बोझ ही माना जाता है जिन्हें वह जल्द से जल्द उतारना चाहते हैं। लोग नहीं चाहते कि उनके घर कोई लड़की पैदा हो, क्योंकि वे उसे ब्याह कर किसी दूसरे को सौंपे जाने वाली इकई (पराया धन) मानते हैं। इसीलिए लड़की पर कोई खर्च करना उन्हें धन बर्बाद करना लगता है। लोग इसी ख्याल से बेटियों की अच्छी परवरिश नहीं करते। देखा जाए तो विवाह के साथ कन्या का दान (दूसरे व्यक्ति और परिवार को सौंपना) एक ऐसी प्रथा है, जो लड़कियों की सामाजिक स्थिति को कमजोर करती है। बेटे का दान नहीं होता। वह परिवार की संपत्ति बना रहता है, इसलिए उसमें परिवार पैसा लगाता है। लड़की के विवाह में दहेज के रूप में मोटी रकम भी देनी पड़ती है। कन्यादान और दहेज प्रथा के चलते लड़कियां उपेक्षित होती हैं। जब तक ये हालात नहीं बदलेंगे, कन्या के महत्व पर उपदेश, प्रवचन और आलेख से ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा।
इन सब बातों को सुनकर मैं रो पड़ी। मैंने अपनी मां से कहा कि क्या वे भी मुझे बोझ समझती है। उन्होंने कहा कि नहीं, मैं तुमको बोझ नहीं समझती। बोझ तो वे लोग समझते हैं, जिन्हें लड़कियों के गुणों के बारे में पता न हो। उस दिन से मैंने ठान लिया कि लड़कियों पर हो रहे इस अत्याचार के खिलाफ लड़ने की कोशिश करूंगी ताकि मेरी मां की तरह किसी भी लड़की को उसके मां-बाप बोझ न समझें।
‘थोड़ी अलग हूं मैं
मुझे दिखाई देती है
दुनियां की खूबसूरती
हर चुनौती में दिखाई देते हैं,
कई मौके
अच्छा लगता है कुछ नया करना,
खुश रहना
जिंदगी को खुल कर जीना
क्योंकि मैं अतीत नहीं, भविष्य हूं।’
नन्दिनी कुमारी
ए.एन. कालेज, पटना
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