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दोस्त दगा दे तो भी समाज लड़की से ही पूछता है सवाल

सपनों को चली छूने
सपनों को चली छूने
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सृष्टि के आरंभ में ईश्वर ने शायद यही कल्पना की होगी कि जब उन्होंने दो भिन्न प्रकृति, शरीर एवं शीलगुणों के साथ आदमी एवं औरत को एक दूसरे का पूरक बनाया है, तो दोनों एक सुंदर संसार को निर्मित करेंगे। आज भी इनके बीच एक दूसरे के प्रति अति आकर्षण है, जो प्रेम में प्रकट होता है। शुरुआत में दोनों जरूरत पड़ने पर सहायता आदि करने की कस्में खाते हैं। लड़की जो कि मधुर एवं सांवेगिक प्रकृति की होती है, इन प्रारंभिक बातों को गांठ बांध लेती है। बात कुछ आगे बढ़ती है। वे एक दूसरे से मिलते-जुलते हैं।  लड़का अपनी मीठी बातों से उसे विश्वास में लेता है और फिर कुछ महीनों तक यह सिलसिला चलता रहता है। लड़की को अपने परिवार में कई तरह के सवालों का सामना करना पड़ता है। कई निर्देश मिलते हैं। फिर एक दिन उसे यह पता चलता है कि वह जिसे दोस्त समझ रही थी, वह तो उसकी देह का भूखा है। वह वापस अपने घर परिवार से इस बारे में बात करना चाहती है। परिवार वाले पहले तो उसे लड़की होने के नाम पर कोसते हैं। फिर लड़की की मां को यह अहसास होता है कि उसके तथा उसकी बेटी के बीच गलतफहमी की दीवार चढ़ी है।


मगर तब तक उस लड़की की दुनिया उजड़ चुकी होती है। वह मानसिक रूप से न तो अपने परिवार वालों के खिलाफ हो सकती है और न ही वह उस दोस्त के साथ ही रह सकती है, जो भरोसा तोड़ चुका हो। अजीब-सी कश्मकश में झूलती हुई वह अपने जन्मदाता की शरण में ही रहना पसंद करती है। लड़की अपने धोखा खाए अतीत को भुलाकर आगे बढ़ाना चाहती है, पर हाय रे समाज! वह उसे हर वक्त सवालिया नजरों से देखता है, मानो गलती सिर्फ लड़की की हो और उसे इसका एहसास कराया जा रहा हो। मगर अब लड़की को यह विश्वास हो चुका है कि वह असाधारण है और उसे अपने जैसी कई अन्य लड़कियों के लिए संघर्ष करना होगा।


न रोको मेरी यूं कलम!

जो बढ़ाना चाहती है उस नारी को,

जिसे रोका गया है हर कदम

न रोको मेरी यूं कलम!

जो बसाना चाहती है वह गुलशन,

जिसे रौंदा गया है हर कदम!

न रोको मेरी यूं कलम!

सुस्मिता कुमारी

ए.एन. कालेज, पटना


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